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कविता: चांद तारों सी सजी थी उसकी डोली

कविता: चांद तारों सी सजी थी उसकी डोली

चांद तारों सी सजी थी उसकी
डोली ।
नाच गाना जोर शोर से
भागम भाग लगी थी घरवालों की
आवभगत हो रही थी मह मानो की
सुबह से कुछ गुमसुम थी वो
चहरे पे शिकंज साफ नजर आ रही
डर के भाव मंडरा रहे थे
अजीब सी बेचैनी थी
मायूस थी घर की राजकुमारी
पर कोई पास नहीं था
दीवारें चिडा रही थी
जाना होगा अब उसे हर पल
याद दिला रही थी
अचानक मा पापा पास आये उसके
 गले लिपट रोने लगी
आंखों से आंसू
होटों की कंपन
साफ कह रही थी
आपसे दूर
कैसे रह पाऊंगी मैं
 

- ऋषिका पारीक

 

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