यदि अदालत, मीडिया न होते!
[EDITED BY : जे जे राजपुरोहित]
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MODRAN NEWS: ; AUG 28, 2017

तो क्या बाबा राम रहीम बलात्कारी साबित होता? क्या हम सवा सौ करोड़ लोगों को यह अधिकार होता कि उनका जो शरीर है वह उनका अपना है न कि सरकार का! हां, नरेंद्र मोदी सरकार के अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में यह तर्क देकर इतिहास में अपनी यह समझ दर्ज कराई है कि नागरिक की निजता (मतलब घर में सेक्स करने जैसे निज व्यवहार की आजादी) की बात तो दूर व्यक्ति अपने शरीर का संपूर्ण अधिकार भी लिए हुए नहीं है, (Citizens don't have absolute right over their bodies) बल्कि उस पर सरकार का हक है!
गनीमत जो सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को खारिज किया। सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संवैधानिक बेंच ने फैसला बताया कि प्राइवेसी, निजता नागरिक का मौलिक अधिकार है। इसे सरकार हड़प कर नागरिक की अनिच्छा पर अपनी इच्छा याकि उसकी प्राइवेसी से बलात्कार नहीं कर सकती। सोचें, यदि सुप्रीम कोर्ट नहीं होता, उसे स्वतंत्रता नहीं होती, उसके जज डरे हुए, गुलाम होते तो क्या सरकार को नागरिकों की प्राइवेसी से बलात्कार करने की अनंत छूट नहीं मिलती? मोदी सरकार का कहा जज यदि मान लेते तो भारत के नागरिक निजता गंवाते हुए दुनिया में क्या गुलाम की हेय हैसियत नहीं पा जाते!
सो, एक मामला केंद्र सरकार, प्रधानमंत्री की इच्छा और सुप्रीम कोर्ट के स्तर का है तो दूसरा छोटी अदालत का, पीड़ित का, अपराधी का है। अदालत का हमारा अनुभव यों खराब हो रहा है। कई बार अदालती किस्से विचार बनाते हैं कि अपने यहां मानो ये यंत्रणाघर हों। न्याय नहीं, बल्कि यातना! बावजूद इसके हकीकत यह भी है कि यदि अदालत नहीं होती तो क्या उन निरीह लड़कियों को न्याय मिलता, जिनके साथ बाबा राम रहीम ने इस अंहकार के साथ बलात्कार किया कि वह कुछ भी कर सकता है!
मायावी ताने-बाने, झूठ-फरेब, रॉक स्टार मार्केटिंग और करोड़ों लोगों की ताकत के दम पर उसने भगवान का वह रूप प्राप्त किया जिसमें बलात्कार उसकी लीला है, भक्त का समर्पण है। वह उसके साथ कुछ भी करे उसे उसका हक है क्योंकि वह अजेय है, बाहुबली है और वोट उसकी उंगलियों से बनते-बिगड़ते हैं! तब भला उसका कौन बाल बांका कर सकता है!
सोचें, उस अजेय बाहुबली का क्या हुआ? वह आज शैतान का पर्याय बन सजायाफ्ता कैदी नंबर 1997 है तो वजह लोकतंत्र है, जिसमें अदालत की न्यायदेवी का एक तराजू है तो उसके आगे नैरेटिव लिए मीडिया की भूमिका भी है। मीडिया याकि बौद्धिक विमर्श से बनी जागरूकता, चिंता, ताकत थी, जिसने सुप्रीम कोर्ट के जजों के आगे निजता, प्राइवेसी का यह तराजू बनवाया कि यदि नागरिक को उसके घर की, उसकी शरीर की भी आजादी नहीं हुई तो वह गुलाम होगा या स्वाधीन? पावर और सत्ता के अंधों ने नागरिक को ऐसा गुलाम माना कि वह अंगूठा लगाने के लिए कहे तो अंगूठा लगाओ, वह उसे अपने डाटाबेस की जंजीरों में बांधे तो बंधे रहो। लेकिन बौद्धिकों ने, मीडिया ने (और खास कर अंग्रेजी मीडिया ने) विषय की जागरूकता बनवाई तो सुप्रीम कोर्ट ने उसके वैश्विक परिप्रेक्ष्य, हकीकत को जान यह बेबाक, दो टूक फैसला सुनाया कि निजता इंसान का, नागरिक का मौलिक अधिकार है।
अब जमीन के मामले, सिरसा कस्बे के मसले पर आएं। बाबा राम रहीम 2002 में भी वहां वोटों का, सत्ता का, पैसे का, वैभव का बादशाह था। सिरसा उसका मुख्यालय। इस मुख्यालय के किसी कमरे, गुफा से लड़की ने अपना व्यथा पत्र लिखा। और मालूम है आपको कि उसे आवाज देने की किसने हिम्मत की? शहर के उस पत्रकार, संपादक ने, जिसके छोटे मीडिया, फर्रे अखबारों की आम इमेज नेताओं, अफसरों ने ब्लेकमैलर पत्रकार की बनवाई है! सिरसा कस्बे-शहर के ‘दैनिक पूरा सच’ ने लड़की का पत्र छापा। हां, किसी भास्कर, जागरण जैसे बड़े अखबार ने नहीं, बल्कि उस छोटे फर्रे अखबार के संपादक ने हिम्मत, मर्दानगी दिखाई जिसकी जात को मोदी सरकार ने पिछले तीन सालों से मारने की मुहिम चलाई हुई है। ध्यान रहे मैं इस मुहिम पर सवा साल पहले सीरिज में लिख चुका हूं कि नरेंद्र मोदी, उनका प्रधानमंत्री दफ्तर, सूचना मंत्रालय, डीएवीपी आदि कैसे अखबारों-मीडिया को खत्म करने की मुहिम छेड़े हुए हैं। इसके चलते सैकड़ों अखबार बंद हो चुके हैं और वह अभियान अभी भी जारी है। सरकार की मंशा है कि छोटे ‘फर्जी’ अखबार बंद हों और दस-बीस बड़े अखबार चलें ताकि लोकतंत्र के छोटे सौ फूल खिले रहना खत्म हो और बड़े कारोबारी समूह का वह मीडिया चले, जिनका टेंटुआ सरकार की, पावर, बाबा-सेठ की मुट्ठी में मजे से फंसा रह सकता है।
बहरहाल, उस फर्जी, फर्रे छोटे ‘दैनिक पूरा सच’ और उसके संपादक रामचंदर छत्रपति की हिम्मत देखिए कि उसने बाबा राम रहीम के पावर से पंगा लिया। बलात्कार की शिकार लड़की का पत्र छाप दिया। मीडिया विरोधी लोग कह सकते हैं कि वह ब्लेकमेलर होगा। जब बाबा ने सब बड़े मीडिया अखबार, चैनल खरीदे हुए थे तो छत्रपति ने इस खबर की हिम्मत दिखा अपनी बोली लगवानी चाही होगी।
लेकिन घटनाक्रम गवाह है वह निडर पत्रकार निरीह साध्वियों की व्यथा से विचलित था। बाबा राम रहीम से भिड़ने का मिशन बना बैठा। नतीजा था कि उसे उसके घर के बाहर 24 अक्टूबर 2002 में दो गुंडों ने रिवाल्वर से पांइट ब्लैंक गोलियां मारी। वह लहुलुहान हुआ। अस्पताल में वह 28 दिन तड़पता रहा। मगर पुलिस ने मामला दर्ज करके भी बाबा को नामजद बनाने वाला बयान नहीं लिखा। वह 28 दिन अस्पताल में मौत से लड़ता रहा। प्रशासन –पुलिस सब बाबा और उसके डेरे की गुलाम। वह जल्दी मरे इसकी चिंता में प्रशासन ने न तो इलाज की सुध ली और न एफआईआर में बाबा का नाम आने दिया।
उस वक्त सिरसा की कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं याकि एनजीओ (जिन्हें खत्म कराने की भी मोदी सरकार ने पिछले तीन वर्षों से सिलसिलेवार मुहिम चलाई हुई है) ने हल्ला किया और हाई कोर्ट में वकील का जुगाड़ कर वहा मामला पहुंचवाया तो वहां फर्रा अखबार, उसमें छपे पत्र का स्वंय संज्ञान ले कर हाई कोर्ट ने जिला अदालत को जांच के लिए कहा।
सो, एक तरफ कथित भगवान, उसका विशाल एंपायर और दूसरी तरफ उस छोटे अखबार-संपादक का लड़ाई लड़ते हुए मरना। उसके बाद उसके बेटे ने पिता की मौत की लड़ाई जारी रखी। अपने पिता की हत्या की जांच, मुकद्दमे में वह खपा। 15 साल की लड़ाई के बाद अदालत ने बलात्कार की जांच का फैसला सुनाया तो उस संपादक की हत्या के मामले में भी फैसला शायद 16 सितंबर को आ जाए। बाबा राम रहीम पर वह दूसरा फैसला होगा।
सोचें उस मुफसिल पत्रकार पर। उस छोटे ‘दैनिक पूरा सच’ पर। आज इन छोटे अखबारों को नरेंद्र मोदी, अमित शाह समाज-देश का नासूर मान खत्म कर रहे हैं। पावर के, सत्ता वर्चस्व के इनके हिंदू विजन में छोटे मीडिया की निडरता ये ब्लैकमेलिंग, फर्जीवाड़ा मानते हैं। आज का प्रधानमंत्री दफ्तर और मोदी के गुजरात से आए कारिंदे मीडिया को वैसे ही मोनिटर करते है, जैसे सिरसा में बाबा राम-रहीम का कंट्रोल रूम ‘दैनिक पूरा सच’ को करता था। बाबा ने बड़े सब चैनलों, अखबारों को मैनेज किया हुआ था (हालांकि ये सगे नहीं होते यह बाबा भी अब जान रहा होगा और आगे मोदी-अमित शाह भी जानेंगे)। जाहिर है बाबा रूपी भगवान ने अपने कंट्रोल, अपनी सत्ता के अंहकार में वहीं किया जो हर अंहकारी करता है। अपने पावर से सच को दबाया। अपने को अजेय, वक्त का बादशाह मान अपनी सत्ता सदा-सदा के लिए स्थायी मानी।
सोचें आज उसका इतिहास क्या लिखा जा रहा है?
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